पाप छोटा हो या बड़ा, क्यों भोगना पड़ता है?

“पाप चाहे एक बूँद हो या समंदर… परिणाम से कोई नहीं बच सकता।”

पाप छोटा हो या बड़ा, क्यों भोगना पड़ता है?
पाप छोटा हो या बड़ा, क्यों भोगना पड़ता है? https://bhakti.org.in/पाप-छोटा-हो-या-बड़ा-क्यों/

मनुष्य जीवन बड़ा विचित्र है।हम हर दिन असंख्य कर्म करते हैं—कभी सोचकर, कभी अनजाने में।कभी भावनाओं में बहकर, तो कभी स्वार्थ में डूबकर।लेकिन जो बात हम अक्सर भूल जाते हैं,वो ये है कि—हर कर्म, चाहे वो सूक्ष्म हो या स्थूल, उसका परिणाम निश्चित है।

कोई देखे न देखे… ऊपर एक न्याय की आंख है…जो हर सोच, हर भावना और हर कर्म का लेखा-जोखा रख रही है।

आज का मनुष्य सोचता है—“इतना सा पाप किया है, कौन देख रहा है?”किसी को छल लिया, किसी को अपमानित कर दिया,थोड़ा झूठ बोल दिया, थोड़ा हक मार लिया,थोड़ा स्वार्थ पाल लिया, थोड़ा क्रोध दिखा दिया…

लेकिन क्या ये “थोड़ा-थोड़ा” पाप,कभी “पूरा-पूरा” दुःख बनकर हमारे जीवन में नहीं लौटता ? कर्म का नियम अटल है।ब्रह्मा भी उसे नहीं बदल सकते।क्योंकि ये नियम ही ब्रह्मांड की नींव है।

रामायण में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा:

“कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करहि, सो तस फल चाखा॥”

ईश्वर ने इस सृष्टि को कर्म पर आधारित बनाया है।हम जैसा बीज बोते हैं, वैसा ही फल हमें मिलता है।अगर हमने काँटों का बीज बोया, तो फूलों की आशा करना मूर्खता है।

पाप चाहे अंधेरे में किया जाए,या अकेले कमरे में…वो ब्रह्मा की आंख से छुप नहीं सकता। धर्मग्रंथों में कई प्रसंग हैं जहाँ एक छोटा सा पाप भी,
बड़े-बड़े ऋषियों और राजाओं के जीवन में भारी पड़ गया।

विक्रमादित्य जैसे धर्मराज को भी अपने एक छल का फल भोगना पड़ा।कर्ण जैसे दानी को भी अपने पूर्व जन्मों के कर्म का मूल्य चुकाना पड़ा।
और तो और, खुद श्रीराम को भी…झूठे शबरीबाण का फल जीवनभर सीता से वियोग के रूप में मिला।

तो जब देवता भी कर्म के नियम से नहीं बच सके,तो हम और आप कैसे बच सकते हैं?

अब सवाल उठता है—क्या कोई राह है? क्या पाप से मुक्ति संभव है?

हाँ…
पर केवल डर से नहीं,केवल मंदिर जाकर घंटी बजाने से नहीं,केवल ‘माफ़ कर दो प्रभु’ कहने भर से नहीं।

सच्ची मुक्ति तभी मिलती है जब—हम अपने पाप को स्वीकार करते हैं।हम उसका पश्चाताप करते हैं, बिना बहाने बनाए।और हम दृढ़ निश्चय करते हैं कि दोबारा वैसा कर्म नहीं करेंगे।

ईश्वर न्यायप्रिय है,
लेकिन उससे भी अधिक वह करुणामय है।वह सजा देता है, परन्तु सिखाने के लिए।वह रुलाता है, पर अंत में समेटने भी आता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:

“अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥”

अर्थात—यदि कोई अत्यंत पापी भी,
यदि सच्चे मन से मेरी भक्ति करता है,
तो वह भी साधु कहलाने योग्य है।

तो क्या करें हम?

हर दिन आत्ममंथन करें – आज मैंने किसी का दिल तो नहीं दुखाया?किसी का अपमान किया हो, तो क्षमा माँगें।जहां हो सके, सेवा करें।

और सबसे ज़रूरी—हर दिन, हर पल, भगवान का नाम लें।क्योंकि कलियुग में केवल “नाम” ही ऐसा औषध है,जो जन्मों के पापों को भी हर सकता है।

“पाप चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो,
ईश्वर की कृपा उससे भी बड़ी है।
बस हमें चाहिए एक सच्चा हृदय,
जिसमें पश्चाताप की अग्नि हो,
और सुधार की लौ जलती हो।”

[अंतिम संदेश]

जो हुआ, उसे बदला नहीं जा सकता…
पर जो होगा, उसे सुधारा जा सकता है।
अपने वर्तमान को ईश्वरमय बना दो,
भविष्य स्वतः पवित्र हो जाएगा।

सच्चा धर्म, सच्चा प्रायश्चित, और सच्चा प्रेम ही—
हमें पाप के बंधन से मुक्त कर सकता है।

Post Views: 92