क्या भगवान भाव से खुश होते हैं या भोग से? जानिए कन्नप्पा की सच्ची कथा”

कहते हैं — “भक्ति में शक्ति है, पर सच्ची भक्ति वही है जिसमें भाव हो।”यह वाक्य केवल शब्द नहीं, बल्कि भगवान के प्रति अखंड प्रेम और निष्कपट समर्पण का सार है।क्योंकि भगवान के लिए सोने-चाँदी, भव्य पूजा या हजारों दीपक का कोई अर्थ नहीं,उनके लिए मायने रखता है — भक्त का हृदय और उसका भाव।आज हम आपको एक ऐसी सच्ची कथा सुनाने जा रहे हैं
जो यह सिद्ध करती है कि भगवान को केवल भाव की आवश्यकता होती है,भोग की नहीं। यह कथा है — शिवभक्त कन्नप्पा नयनार की,जिनकी भक्ति ने खुद महादेव को भी रुला दिया था।
कन्नप्पा कौन थे?
कन्नप्पा नयनार दक्षिण भारत के प्रसिद्ध ६३ नयनार संतों में से एक थे।वे तमिलनाडु के एक छोटे से गाँव में पैदा हुए थे।उनका असली नाम था थिन्नप्पा, और वे एक शिकारी (वनवासी) जाति से थे।कन्नप्पा के मन में धर्म और पूजा की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी।वे जंगल में रहते, पशु-पक्षियों का शिकार करते और अपने परिवार का पालन करते थे।लेकिन उनके भीतर एक निर्मल और निष्कपट हृदय था —जो प्रेम से भरा हुआ था और भगवान की खोज में तड़प रहा था।
भगवान शिव से पहला परिचय
एक दिन शिकार की तलाश में कन्नप्पा जंगल के भीतर बहुत दूर निकल गए।वहाँ उन्हें एक पुराना शिवलिंग दिखाई दिया —जिस पर वर्षों से किसी ने पूजा नहीं की थी।
उस पर पत्ते, धूल और मिट्टी जमी हुई थी।कन्नप्पा को यह देखकर दुःख हुआ।
उनका मन भर आया और उन्होंने कहा —“हे प्रभु! क्या कोई आपको पूजने नहीं आता?आप तो सबका सहारा हैं, फिर कोई आपके पास क्यों नहीं?”उन्होंने सोचा कि अगर कोई नहीं है तो मैं ही आपकी पूजा करूंगा!
निष्कपट भक्ति की शुरुआत
कन्नप्पा के पास न तो जल था, न फूल, न धूप।लेकिन उनका प्रेम इतना सच्चा था कि उन्होंने अपने भाव से पूजा की शुरुआत की।उन्होंने अपने मुँह से जल भरकर शिवलिंग पर चढ़ाया —क्योंकि उनके पास कोई कलश नहीं था।फूल न होने पर उन्होंने जंगल से ताज़े पत्ते और शिकारी के तीरों सेशिवलिंग को सजाया।भोग के लिए उन्होंने अपने शिकार से मिला मांस शिवलिंग के चरणों में रख दिया —क्योंकि वही उनके पास सबसे प्रिय था।संसार की दृष्टि से यह पूजा गलत लग सकती है,लेकिन भगवान के लिए यह सबसे पवित्र पूजा थी,क्योंकि उसमें छल नहीं था — केवल प्रेम था।
पुजारी की नाराज़गी
उसी जंगल में एक ब्राह्मण पुजारी रोज़ भगवान शिव की पूजा करने आता था।जब उसने देखा कि शिवलिंग पर मांस रखा है और मिट्टी लगी है,तो वह बहुत क्रोधित हुआ।उसने शिवलिंग को स्नान कराया और फिर से शुद्ध पूजा की।लेकिन अगले दिन फिर वही दृश्य — मांस, मिट्टी और पानी के छींटे।पुजारी समझ नहीं पाया कि कौन यह “अपवित्र” काम कर रहा है।उसने निश्चय किया कि वह आज छिपकर देखेगा कि यह कौन है।
भगवान के लिए आंखें समर्पित कर देने वाला भक्त
जब पुजारी ने देखा कि वह काम एक शिकारी कर रहा है —जो अपने मुँह से जल डालता है, मांस अर्पित करता है और प्रेम से पूजा करता है —तो वह हैरान रह गया।वह सोच ही रहा था कि तभी शिवलिंग से रक्त बहने लगा!कन्नप्पा घबरा गए —उन्होंने देखा कि शिवलिंग की एक आँख से रक्त टपक रहा है।उन्होंने तुरंत कहा —“हे प्रभु! आपकी आंख में चोट लगी है? चिंता मत कीजिए!”और बिना एक पल गँवाए,उन्होंने अपनी एक आंख निकालकर शिवलिंग पर रख दी।लेकिन रक्त रुकने के बजाय, अब दूसरी आंख से भी रक्त निकलने लगा।कन्नप्पा बोले — “आपकी यह आंख भी घायल हो गई, प्रभु!मैं अपनी दूसरी आंख भी दे दूँगा।”उन्होंने तुरंत अपनी दूसरी आंख निकाल ली।अब वे अंधे हो गए — लेकिन भक्ति से पीछे नहीं हटे।वे बोले — “हे प्रभु! अब मैं देख नहीं सकता,पर मैं अपने चरण से निशान बनाऊँगा जहाँ आपकी आंख है।”वे अपनी आंख दूसरी बार रखने ही वाले थे किशिवलिंग अचानक प्रकट हुआ, और भगवान शिव स्वयं प्रकट हो गए।
भगवान का वरदान
भगवान शिव ने उन्हें रोकते हुए कहा —“कन्नप्पा! रुक जाओ, मैं तुम्हारे भाव से प्रसन्न हूँ।”उनकी आंखें फिर से लौट आईं और शिव बोले —“तुम्हारी भक्ति अद्वितीय है। संसार में ऐसा भक्त दुर्लभ हैजो बिना किसी नियम, बिना किसी स्वार्थ केकेवल प्रेम से पूजा करता है।”भगवान शिव ने उन्हें मोक्ष का वरदान दिया और कहा —
“तुम्हारा नाम युगों-युगों तक ‘कन्नप्पा नयनार’ के रूप में लिया जाएगा।तुम्हारे भाव के आगे सारे भोग तुच्छ हैं।”
भाव बनाम भोग — सच्चा संदेश
कन्नप्पा की यह कथा हमें सिखाती है किभगवान को भाव चाहिए, भोग नहीं।अगर प्रेम सच्चा हो, तो भगवान उसे किसी भी रूप में स्वीकार करते हैं।जो फूल मंदिर में रखे जाएँ पर उनमें अहंकार हो,वे भगवान तक नहीं पहुँचते।पर जो एक पत्ती भी प्रेम से अर्पित की जाए,वह भगवान के हृदय तक पहुँच जाती है।यह कथा यही सिद्ध करती है कि
धर्म का सार कर्मकांड नहीं, बल्कि निष्कपट भक्ति है।भक्ति में न जाति का भेद है, न स्थिति का —बस मन में सच्चा प्रेम होना चाहिए।
कन्नप्पा की कहानी एक शाश्वत सत्य को प्रकट करती है —कि भगवान को सोने के मंदिर नहीं चाहिए, बल्कि सोने जैसा हृदय चाहिए।भक्ति का अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि समर्पण है।जब हम अपना “स्वार्थ” छोड़कर भगवान को अपना “भाव” अर्पित करते हैं,तो भगवान स्वयं हमारे रक्षक बन जाते हैं।
इसलिए जब भी आप पूजा करें, याद रखें —
भोग से नहीं, भाव से भगवान प्रसन्न होते हैं।