भगवान कृष्ण का वह पहला नाम, जो दुनिया भूल गई…
क्या आप जानते हैं?
हमारे प्रिय भगवान श्रीकृष्ण, जो लाखों-करोड़ों भक्तों के हृदय में बसे हैं, जिनकी बाँसुरी की मधुर तान आज भी आस्था और प्रेम का संदेश देती है, उनका पहला नाम क्या था?
अक्सर हम उन्हें “कृष्ण”, “मुरलीधर”, “गोपाल”, “कान्हा”, “श्यामसुंदर” जैसे अनेक नामों से पुकारते हैं…
लेकिन उनके जन्म के समय उन्हें सबसे पहले किस नाम से पुकारा गया, यह जानना एक अद्भुत और भावपूर्ण अनुभव है।
गोकुल में जन्म से पहले की पृष्ठभूमि
मथुरा के कारागार में जब वासुदेव जी और माता देवकी ने अष्टम पुत्र के रूप में कृष्ण को जन्म दिया, उस रात चारों ओर अलौकिक प्रकाश फैल गया।
कारागार के पहरेदार गहरी नींद में सो गए, दरवाज़े अपने आप खुल गए और यमुनाजी का जल वासुदेव के चरणों को छूकर रास्ता देने लगा।
वासुदेव जी ने शिशु को गोद में उठाया, उनके सिर पर दिव्य शेषनाग ने छत्र छाया दी और वे गोकुल पहुँच गए, जहाँ नंद बाबा और यशोदा मैया रहते थे।
पहला नाम – ‘वासुदेव’
कृष्ण का पहला नाम उनके जन्म की परिस्थितियों से जुड़ा है।
शास्त्रों और पुराणों में उल्लेख मिलता है कि चूँकि वे वासुदेव जी के पुत्र थे, उन्हें जन्म के समय “वासुदेव” कहा गया।
यह नाम संस्कृत के दो शब्दों से बना है – “वासु” (जिसका अर्थ है सर्वव्यापी, सबमें रहने वाला) और “देव” (जिसका अर्थ है दिव्यता, ईश्वर)।
अर्थात — वासुदेव वह हैं जो सबमें व्याप्त दिव्य शक्ति हैं।
यह नाम केवल उनके पिता के नाम से नहीं, बल्कि उनके ईश्वर स्वरूप को भी दर्शाता है।
गोकुल में दूसरा नामकरण
जब वासुदेव जी ने शिशु को गोकुल में नंद बाबा को सौंपा, तब किसी को भी उनके वास्तविक जन्म की कथा का पता नहीं था।
गोकुल में जन्म उत्सव जैसा माहौल बना और नंद बाबा ने उनका नाम रखा “कृष्ण”।
कृष्ण शब्द का अर्थ है – “जो सबको आकर्षित करे”, “अत्यंत काला, परन्तु सौंदर्य से परिपूर्ण”।
इस प्रकार, भले ही गोकुल में सभी ने उन्हें कृष्ण कहा, लेकिन वासुदेव जी के घर में जन्म लेने के कारण उनका पहला नाम “वासुदेव” ही था।
वासुदेव’ नाम का आध्यात्मिक महत्व
‘वासुदेव’ केवल एक नाम नहीं, बल्कि यह ब्रह्म का प्रतीक है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान स्वयं कहते हैं — “वासुदेवः सर्वम्” यानी सम्पूर्ण ब्रह्मांड वासुदेव ही है।
इस नाम में यह संदेश छिपा है कि भगवान हर जीव, हर कण-कण में व्याप्त हैं।
जब हम उन्हें वासुदेव कहकर पुकारते हैं, तो हम केवल एक बालक को नहीं, बल्कि उस सर्वशक्तिमान को स्मरण करते हैं जो सृष्टि के कण-कण में बसा है।
कथाओं में ‘वासुदेव’
भागवत पुराण और हरिवंश पुराण में वर्णन है कि जब देवकी ने पहली बार अपने पुत्र का मुख देखा, तब उनके मुख से “हे वासुदेव!” शब्द निकले।
वासुदेव जी ने भी शिशु को देखकर यही नाम मन ही मन लिया।
यही कारण है कि महाभारत और गीता में भी अर्जुन, भगवान को बार-बार “वासुदेव” कहकर संबोधित करते हैं — क्योंकि यह नाम उन्हें जन्म और उनके दिव्य स्वरूप दोनों से जोड़ता है।
क्यों भूल जाते हैं लोग यह नाम?
अधिकांश लोग गोकुल और वृंदावन की कथाओं से परिचित हैं — जहाँ वे ‘कृष्ण’ के रूप में खेले, गोपियों के साथ रास रचाया, माखन चुराया, और कंस का वध किया।
इसलिए बचपन की कहानियों में ‘कृष्ण’ नाम इतना प्रसिद्ध हो गया कि ‘वासुदेव’ नाम केवल शास्त्र पढ़ने वालों के बीच ही ज्यादा जाना जाता है।
लेकिन सच्चे भक्त दोनों नामों को समान भाव से याद करते हैं, क्योंकि वासुदेव नाम हमें भगवान के उस रूप की याद दिलाता है जो जन्म के क्षण से ही दिव्य था।
भक्ति में ‘वासुदेव’ जप का महत्व
शास्त्रों में कहा गया है कि ‘वासुदेव’ नाम का जप करने से मन की चंचलता शांत होती है और हृदय में करुणा का भाव जागृत होता है।
यह नाम हमें याद दिलाता है कि भगवान कहीं दूर नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही हैं।
अनुभव करने वाले भक्त कहते हैं कि जब आप ध्यान में बैठकर धीरे-धीरे “वा…सु…दे…व” का जप करते हैं, तो एक गहरी शांति और आनंद का अनुभव होता है।
निष्कर्ष
तो, जब भी आप श्रीकृष्ण का नाम लें, तो उनके पहले नाम ‘वासुदेव’ को याद करना न भूलें।
यह नाम केवल उनके पिता की पहचान नहीं, बल्कि उनके अनंत, सर्वव्यापी और दिव्य स्वरूप का प्रतीक है।
याद रखिए — कृष्ण और वासुदेव में कोई अंतर नहीं, दोनों नाम उसी परमात्मा के हैं, जो कभी गोकुल में माखन चुराते हैं, कभी अर्जुन के सारथी बनते हैं, और कभी भक्त के हृदय में प्रेम का दीप जलाते हैं।
भावुक समापन पंक्ति
“हे वासुदेव, आप सबमें व्याप्त हैं, फिर भी हमारे हृदय में सबसे करीब रहते हैं। आपके पहले नाम का स्मरण करके हम जन्म-जन्मांतर के अंधकार से बाहर आते हैं और प्रेम के प्रकाश में जीवन को पवित्र बनाते हैं।