"जब भगवान शिव ने भूकंप के पीछे छिपे सत्य को प्रकट किया"
                                “जब भगवान शिव ने भूकंप के पीछे छिपे सत्य को प्रकट किया”

प्राचीन काल की बात है। हिमालय की गोद में स्थित कैलाश पर्वत — जहाँ स्वयं भगवान शिव ध्यानमग्न रहते हैं। वहां की शांति अपूर्व थी। ऋषि-मुनि, सिद्ध, और देवता तक वहाँ तपस्या करने आते, परंतु शिव के धैर्य और ध्यान में कोई विघ्न न डालता।
उसी समय लंका में रावण राज करता था — परम शिवभक्त। रावण की भक्ति इतनी प्रबल थी कि वह अपने सिर काट-काटकर शिव को अर्पित करता,

"जब भगवान शिव ने भूकंप के पीछे छिपे सत्य को प्रकट किया"

और शिव प्रसन्न होकर उसे वरदान देते जाते।

रंतु भक्ति में एक दोष आ गया — अहंकार।
रावण ने सोचा, “अगर मैं शिव का इतना बड़ा भक्त हूँ, तो क्यों न उन्हें लंका ले जाऊँ? वहीं उन्हें स्थापित करूँ, और सारा संसार मेरी भक्ति की गूंज सुने!” उसने कैलाश पर्वत को ही उठाने का प्रयास किया। जैसे ही उसने पर्वत को हिलाया — धरती काँप उठी। आकाश में गर्जना हुई, नदियाँ उफान पर आ गईं, और वनस्पतियाँ काँपने लगीं।
                                 यह पहला भूकंप था, जिसे देवता भी न समझ सके।
“हे प्रभु! यह कैसा संकट है?” — ब्रह्मा और विष्णु भी चिंतित हो उठे। पर शिव शांत थे। उन्होंने केवल अपना अंगूठा पर्वत पर हल्का-सा दबाया और रावण चीख उठा। पर्वत के नीचे दबा, वह पश्चाताप करने लगा, और प्रार्थना की:

"जब भगवान शिव ने भूकंप के पीछे छिपे सत्य को प्रकट किया"

“प्रभो! मैंने आपके धाम को हिलाने का प्रयास किया… यह मेरा अपराध है। मुझे क्षमा करें।”
     शिव ने तब कहा:

“हे रावण, तुम्हारी भक्ति में शक्ति थी, पर अहंकार ने उसे भ्रष्ट कर दिया। यह जो भूकंप हुआ — वह केवल चेतावनी थी। जब प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है, जब मनुष्य या राक्षस अपनी मर्यादा भूलते हैं, तब धरती स्वयं कांप उठती है।”
शिव ने तब भूकंप को प्रकृति का संदेश बताया — चेतावनी, सुधार का संकेत।
रावण को क्षमा मिला, पर चेतावनी भी — “शक्ति को कभी अभिमान मत बनने दो।”

इस कथा का सार:

जब भी पृथ्वी कांपती है, वह हमें पुकारती है — “हे मानव! क्या तू भूल गया कि तू माटी से बना है?”
शिव केवल विनाशक नहीं, चेतावनी देने वाले संहारक-संरक्षक भी हैं।
भूकंप केवल भूगर्भीय हलचल नहीं, वह ब्रह्मांड की चेतना का कम्पन भी हो सकता है।


 

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