“रावण बुरा था फिर भी शिवजी उसकी भक्ति क्यों स्वीकार करते थे?”
रामायण का नाम आते ही एक बात हर किसी के मन में उभरती है—राम अच्छे थे, रावण बुरा था।लेकिन इस सरल-सी दिखने वाली रेखा के पीछे कई परतें छिपी हैं।क्योंकि यदि रावण इतना बुरा था, तो फिर भगवान शिव उसकी भक्ति को क्यों स्वीकार करते थे?रावण पर महादेव क्यों प्रसन्न होते थे?उन्होंने रावण को वरदान क्यों दिए?और क्यों वह “शिवभक्त राक्षस” इतिहास का हिस्सा बना?इन सवालों का उत्तर केवल पौराणिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी गहरा है।आज की इस विस्तृत स्क्रिप्ट में हम इसी रहस्य को समझेंगे—
भक्ति, कर्म, अहंकार और देवत्व के बीच के उस जटिल सम्बन्ध को जो रावण और शिवजी को जोड़ता है।
1. रावण का वास्तविक स्वरूप केवल “राक्षस” नहीं
रामायण में रावण को एक दुष्ट खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, परंतु असल ग्रंथ बताते हैं कि रावण की पहचान केवल इतनी नहीं थी।रावण था—
एक अद्वितीय विद्वान
चारों वेदों व छहों शास्त्रों का ज्ञाता
ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत, नृत्य, वास्तु, युद्धकला में निष्णात
असाधारण साधक और योगी
शिवतंत्र का महाज्ञानी
“शिवतांडव स्तोत्र” का रचयिता
उसका ज्ञान इतना विशाल था कि उसे त्रिकालज्ञ कहा गया—अतीत, वर्तमान और भविष्य का जानने वाला।रावण के भीतर विद्वत्ता, शक्ति और भक्ति तीनों का अद्भुत समन्वय था। यही वह रूप था जिससे महादेव प्रभावित होते थे।
2 रावण की शिवभक्ति तप, त्याग और समर्पण का अद्वितीय उदाहरण
रावण की शिवभक्ति केवल साधारण प्रार्थना नहीं थी, बल्कि अत्यंत कठोर तपस्या थी।कथाओं में उल्लेख है कि—
उसने वर्षों तक भूखा रहकर साधना की,
अपने अंग अर्पित किए,
मन, वचन और कर्म — तीनों से शिवजी का ध्यान किया।
उसकी तपस्या का एक प्रसिद्ध प्रसंग है—रावण ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए अपने दसों सिर अर्पित कर दिए।हर बार सिर काटने पर नया सिर उग आता था और वह फिर तप में लग जाता था।शिवजी को यह समर्पण प्रिय था, क्योंकि—महादेव भक्ति का भाव देखते हैं, पात्रता नहीं।यदि भक्ति सच्ची हो, तो वे असुर, देव, मानव — किसी में भेद नहीं करते।
3. शिवजी “भोलेनाथ” क्यों कहलाते हैं?
क्योंकि वे—
सरलता से प्रसन्न हो जाते हैं
भेदभाव नहीं करते
केवल भाव देखते हैं
और सच्चे मन से की गई भक्ति को स्वीकारते हैं
रावण में भक्ति का भाव प्रचंड था।उसे तप का ज्ञान था, मंत्र का ज्ञान था, तंत्र का ज्ञान था।महादेव के लिए भक्ति का मूल्य है भक्त कौन है, यह महत्वपूर्ण नहीं।उसका मन कितना समर्पित है, यह महत्वपूर्ण है।रावण की भक्ति इतनी प्रगाढ़ थी कि शिवजी ने उसे अपना एक महान भक्त स्वीकार कर लिया।
4. शिवजी का स्वभाव — बिल्कुल निष्पक्ष
महादेव “देवों के देव” ही नहीं,बल्कि “असुरों के भी देव” हैं।
वे समुद्र-मंथन में दोनों पक्षों की रक्षा करते हैं।
वे भस्मासुर और वृत्तासुर जैसे असुरों को भी वरदान देते हैं।
वे भेदभाव नहीं करते।
यह उनकी एक विशेषता है कि वे किसी को उसके कर्मों के आधार पर दंड देते हैं, पर भक्ति को कभी अस्वीकार नहीं करते।
रावण के कर्म बुरे थे,पर उसकी भक्ति शुद्ध थी।इसलिए शिवजी ने उसकी भक्ति स्वीकार की।
5. रावण के दो चेहरे — भक्त और अहंकारी राजा
रावण के व्यक्तित्व को समझने के लिए हमें उसके दोनों पक्षों को अलग-अलग देखना होगा:
(1) रावण – शिवभक्त, योगी, विद्वान
यह वह रावण था जो शिवतांडव गाकर कैलाश को हिला सकता था।जो तपस्या से देवों को भयभीत कर देता था।जो शिवलिंग को लंका ले जाने के लिए पर्वत उठा लेता था।
(2) रावण – अहंकारी, अत्याचारी, धर्मभ्रष्ट
यह वह रावण था जिसने सीता का हरण किया।जिसने स्त्रियों का अपमान किया।जिसका अहंकार इतना बढ़ा कि वह देवताओं को तुच्छ समझने लगा।शिवजी ने पहले रावण को स्वीकार किया, दूसरे को नहीं।भक्ति को वरदान मिले,पर अधर्म को दंड मिला।
6. भगवान शिव रावण को क्यों नहीं रोकते थे?
यह प्रश्न महत्वपूर्ण है—जब शिवजी सर्वशक्तिमान हैं, तो उन्होंने रावण को अधर्म करने से क्यों नहीं रोका?क्योंकि शिवजी—
कर्तव्य में हस्तक्षेप नहीं करते
किसी के कर्मों को रोकते नहीं
केवल परिणाम तय करते हैं
हर जीव अपनी इच्छा से कर्म करता है और उसका फल भोगता है।रावण ने भी यही किया।शिवजी ने उसे शक्ति दी,पर उपयोग कैसे करना है — यह रावण के हाथ में था।जब उसने शक्ति का दुरुपयोग किया, तो उसका अंत निश्चित हो गया।
7. राम और रावण — दोनों अपने-अपने कर्मों के परिणाम थे
भगवान राम धर्म के प्रतीक थे।रावण अधर्म का।लेकिन ध्यान दें—धर्म के लिए राम जरूरी थे,और रावण जैसा विद्वान विरोधी भी आवश्यक था।राम के हाथों रावण का वध होना ही उसका नियति थी।लेकिन मृत्यु से पहले राम ने लक्ष्मण को भेजकर रावण से ज्ञान लेने की प्रेरणा दी —क्योंकि वे जानते थे कि रावण का ज्ञान अत्यंत ऊँचा था।इस घटना से यही सिद्ध होता हैरावण बुरा था, पर रावण का ज्ञान और भक्ति महान थी।
8. रावण की शिवभक्ति का महादेव पर प्रभाव
कथाओं में वर्णित है कि—जब रावण “शिवतांडव स्तोत्र” गाता था,तो कैलाश पर्वत तक कंपन होने लगता था।शिवजी स्वयं उस स्तोत्र से प्रसन्न होकर उसे वरदान देते थे।रावण की भक्ति इतनी शक्तिशाली थी किउसे “रावणेश्वर” तक कहा गया अर्थात शिव द्वारा स्वीकारा गया रावण।महादेव के लिए भक्ति व्यक्तिगत होती है, कर्म सामाजिक।उन्होंने व्यक्तिगत भक्ति देखी, समाजिक अधर्म का दंड दिया।
9. क्या रावण पूर्णतः बुरा था?
नहीं।वह एक जटिल चरित्र था।उसके दोष—
अहंकार
क्रोध
वासना
सत्ता का दुरुपयोग
लेकिन उसके गुण—
शिवभक्ति
विद्या
बुद्धिमत्ता
संगीत व शास्त्रों का ज्ञान
अपने राज्य के प्रति निष्ठा
अपनी प्रजा का रक्षक
इसलिए रामायण के अंत में भी कहा गया—“रावण जैसा विद्वान संसार में दुर्लभ था।”
10. यह कहानी हमें क्या सिखाती है?
1. भक्ति व्यक्ति के कर्मों को नहीं बदलती
भक्ति महान हो सकती है,पर अधर्म का फल हर हाल में मिलता है।
2. ईश्वर भेदभाव नहीं करते
वे दानव और देव — दोनों की सुनते हैं।समर्पण और भावना सर्वोपरि है।
3. शक्ति तभी तक लाभ देती है जब तक अहंकार न बढ़े
रावण हार इसलिए नहीं गया क्योंकि वह कमजोर था,वह इसलिए हारा क्योंकि वह अहंकारी था।
4. ज्ञान बड़ा है, पर विनम्रता उससे भी बड़ी
रावण के पास ज्ञान था,पर राम के पास विनम्रता थी —और विनम्रता ने ही विजय दिलाई।
5. किसी के भीतर अच्छाई और बुराई दोनों हो सकती हैं
संसार काला-सफेद नहीं,बल्कि धूसर रंगों की तरह है।
रावण बुरा था, पर शिवभक्ति बुरी नहीं थी
रावण का चरित्र हमें यह समझाता है कि—एक व्यक्ति के भीतर दिव्यता और अंधकार दोनों हो सकते हैं।भगवान शिव ने उसकी भक्ति को स्वीकार किया,क्योंकि वह भक्ति सच्ची थी, गहन थी, तपपूर्ण थी।लेकिन शिवजी ने उसके अधर्म को नहीं स्वीकारा।इसलिए उसका अंत भगवान राम के हाथों हुआ।शिवजी ने उसके मन की भक्ति को पूजा,और उसके कर्मों को न्याय के लिए राम पर छोड़ा।यही इस प्रश्न का उत्तर है“रावण बुरा था फिर भी शिवजी उसकी भक्ति क्यों स्वीकार करते थे?”क्योंकि भक्ति का आधार भाव है,
और कर्म का आधार न्याय।रावण ने भक्ति से महादेव को पाया,और अधर्म से विनाश को।
