भगवान शिव जी कौन थे?

भगवान शिव जी कौन थे?

भगवान शिव जी कौन थे?

भगवान शिव जी कौन थे?
शिव – जो सबसे अलग हैं

भगवान शिव कौन हैं?

अगर यह प्रश्न मन में उठे, तो उसका उत्तर केवल शब्दों में नहीं, अनुभव में मिलता है।क्योंकि शिव कोई व्यक्ति नहीं, कोई मूर्ति नहीं — शिव एक चेतना हैं,जो हर जीव, हर श्वास, हर कण में व्याप्त है।भगवान शिव का चित्रण एक योगी, तपस्वी और अर्धनारीश्वर (अर्ध पुरुष और अर्ध महिला के रूप में) के रूप में किया जाता है। उनके पास त्रिशूल (तीन शूल), डमरू (ताल वाद्य) और माउंट कैलाश पर निवास की विशिष्टता है। उनका प्रिय वाहन नंदी बैल है, और वे गंगा, चंद्रमा, और सर्पों से अलंकृत होते हैं।

शिव – सृष्टि के मूल स्रोत

सृष्टि की शुरुआत तब हुई जब शून्य से ऊर्जा निकली।वही ऊर्जा शिव कहलायी।विज्ञान कहता है कि सब कुछ कंपन है, स्पंदन है —और हिंदू दर्शन कहता है कि वही स्पंदन शिव हैं।

“नाद रूपं महेशानं” —
अर्थात्, जहाँ भी नाद (sound vibration) है, वहाँ शिव हैं।जब कुछ भी नहीं था, तो शिव अव्यक्त रूप में थे।जब सृष्टि का आरंभ हुआ, तो वे व्यक्त हुए —शिव ने ही शक्ति को जन्म दिया, और शक्ति से सृष्टि चली।इसीलिए कहा जाता है —शिव बिना शक्ति शव हैं, और शक्ति बिना शिव शून्य।”

शिव विनाश के देव नहीं, पुनर्जन्म के प्रतीक हैं

अक्सर लोग कहते हैं — शिव विनाश के देव हैं।लेकिन क्या सच में वे केवल विनाश करते हैं?नहीं। वे विनाश के माध्यम से सृजन करते हैं।पुराना मिटाकर नया रचते हैं।वे नाश नहीं, परिवर्तन हैं।जब अज्ञान मिटता है, तब ज्ञान का जन्म होता है।जब अहंकार टूटता है, तब आत्मा जागती है।और यही तो शिव का कार्य है —पुराने, असत्य और विकारों का विनाश, ताकि सत्य उभरे।

शिव  एक योगी, एक तपस्वी

कैलाश पर्वत पर बैठे वह योगी —आँखें बंद, शरीर पर भस्म, गले में सर्प,और सिर पर बहती गंगा ये सिर्फ़ प्रतीक नहीं, बल्कि जीवन के गहरे अर्थ हैं।भस्म यह बताती है कि एक दिन सब मिट जाना है।सर्प बताता है कि भय पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।गंगा उनके मस्तक पर इसलिए है क्योंकि वे ज्ञान के प्रवाह के स्वामी हैं।तीसरी आँख यह दर्शाती है कि वे सत्य को देखने की क्षमता रखते हैं जो आम आँखें नहीं देख पातीं।

उनका मौन यह सिखाता है —
कि जब मन शांत होता है, तभी भीतर का शिव प्रकट होता है।

शिव – जो सबसे अलग हैं

शिव समाज के नियमों से बंधे नहीं।वे न राजा हैं, न प्रजा।न महल में रहते हैं, न जंगल से डरते हैं।वे भस्म में खेलते हैं, पर सबसे महान हैं।वे औघड़ हैं  न उन्हें पद चाहिए, न पूजन।वे प्रेम चाहते हैं, शुद्ध भाव।इसलिए तो कहा गया “भोलेनाथ।”क्योंकि उन्हें केवल भक्ति चाहिए, दिखावा नहीं।वे असुरों को भी स्वीकारते हैं, देवताओं को भी।उनके द्वार पर भेदभाव नहीं —
हर कोई वहाँ आ सकता है, जो सच्चे मन से “हर हर महादेव” कहे।

शिव – गृहस्थ और तपस्वी दोनों

भगवान शिव एक अद्भुत संतुलन हैं वे सबसे बड़े योगी हैं, फिर भी सबसे श्रेष्ठ गृहस्थ।वे कैलाश में तप करते हैं, पर माता पार्वती के प्रेम में समर्पित हैं।वे ध्यान में मग्न रहते हैं, पर परिवार का भी आदर करते हैं।यही उनका सबसे बड़ा संदेश है “जीवन में संतुलन ही शिवत्व है।”ना केवल संसार से भागो,ना केवल भोग में खो जाओ —शिव सिखाते हैं कि तप और प्रेम, दोनों एक साथ निभाए जा सकते हैं।

शिव – करुणा के सागर

जब समुद्र मंथन हुआ और विष निकला,तो कोई उसे पीने को तैयार नहीं था।तब भगवान शिव ने उसे अपने कंठ में धारण किया,ताकि सृष्टि बच सके।तभी से वे कहलाए — नीलकंठ।यह घटना बताती है कि शिव केवल शक्तिशाली नहीं,बल्कि करुणा के सागर हैं।वे दूसरों का दुःख खुद में समेट लेते हैं।वे त्याग के प्रतीक हैं।वे हमें सिखाते हैं “अगर किसी का भला करना है,
तो पहले स्वयं में शक्ति और धैर्य जगाओ।”

शिव – आंतरिक जागृति का प्रतीक

शिव कोई बाहरी देवता नहीं,वे भीतर की चेतना हैं।जब हम ध्यान करते हैं, मौन होते हैं,तो हमारे भीतर एक ऊर्जा उठती है —वही कुंडलिनी शक्ति है,जो ऊपर उठते हुए शिव तत्त्व से जुड़ जाती है।इस अवस्था में व्यक्ति बाहरी नहीं,आंतरिक प्रकाश में जीता है।वही अवस्था है — शिवत्व की प्राप्ति।

 शिव – संतुलन के देवता

एक ओर वे भूतों के स्वामी हैं, दूसरी ओर देवताओं के देव।एक ओर तांडव करते हैं, दूसरी ओर ध्यानमग्न रहते हैं।यही संतुलन जीवन का आधार है।कभी-कभी हमें भी अपने भीतर का तांडव करना होता है —अर्थात्, अपनी बुराइयों, आलस्य, क्रोध और लोभ का नाश करना होता है,तभी भीतर शांति का नाद गूँजता है।

 

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